Monday, September 23, 2019

विद्यालय, शिक्षक और मै.......


               विद्यालय, शिक्षक और मै........

विद्यालय जाना किसी भी इंसान की ज़िंदगी की सबसे बड़ी शुरुआत होती है, और उसका वहा मन लगना उससे भी महान काम | एक छोटा सा बच्चा जब घर छोडता है तो बड़े हिम्मत का काम समझा जाता है ,क्योकि जो बच्चा अपनों की गोद पहचानता हो दूसरे की गोद मे जाने पर रोने लगता हो ,उसे उनको छोडकर थोड़ी देर नहीं कई घंटो तक दूर और अजनबियो के साथ छोड़ दिया जाये तो ऐसा लगता है मानो उड़ने वाले पक्षी को आसमान की जगह नदी मे तैरने को मजबूर किया जा रहा है| कितना अलग लगता है आज भी अजनबियो के बीच हर कोई यह महसूस कर सकता है, वो तो फिर भी बचपन था उसकी तो बात ही अलग है | कारण ये कि गैरो के बीच वो आजादी नहीं मिलती जो अपनों के साथ महसूस करते है हम सभी|


   
अपनी भी ज़िंदगी कुछ ऐसी ही गुजरी | सभी के वालिदो की सोच की तरह मेरे भी वालिदो की सोच कि घर से अच्छा विद्यलाय है, वहा कुछ तो करेगा देखा-देखी ही सही| जहा तक मुझे याद है मैंने अपने पापा के स्वयं के विद्यालय से अपनी शिक्षा-दीक्षा की शुरुआत की | पापा गोद मे लेकर विद्यालय छोडने जाया करते थे, विद्यालय के सभी शिक्षकगण का ढेर सारा प्यार मिलता था क्योकि प्रबन्धक पुत्र होने का श्रेय था | एक बार साथी से दो-दो हाथ भी हुआ | जैसे-तैसे मामला शांत कराया गया | कक्षा भी बदली कराई गयी | खैर जैसा भी रहा मैंने विद्यालय की शुरुआत कर ही ली थी | मेरे अपने विद्यालय जाने के एक साल बाद मेरा अपना विद्यालय कुछ विषम परिस्थितियो के कारण बंद हो गया , लेकिन मेरी पढ़ाई नहीं|
   मेरे अपने विद्यालय के बंद होने के बाद मेरा दाखिला `मेरे घर के सामने के विद्यालय डा० राम मनोहर लोहिया विद्या पीठ जो मेरे दरवाजे के ठीक सामने था, मे कराया गया| मेरी अपनी कक्षा मे मेरे पड़ोस का कोई न था, विद्यालय के इतने पास होने के बावजूद यहा भी पापा ही छोडने आये| वहा के प्रधानाध्यापक जी ने हमे हमारी कक्षा मे बैठाया , मेरा दाखिला कक्षा एक मे कराया गया था | मुझसे पहले के बहुत से साथी वहा बैठे थे | किसी ने भी मुझसे बात करने की कोशिश न की | मै चुपचाप बैठा रहा, अध्यापक कक्षा आये और पढ़ाना शुरू किया| पहली कक्षा हमे गणित की पढ़ने को मिली थी | गणित अध्यापक श्री सुनील यादव जी जो कि एकदम शख्त मिजाज थे, मै  देखते ही डर गया था| मेरी कक्षा के ठीक दाहिने की कक्षा उस विद्यालय की प्रथम श्रेणी (शिशु) की कक्षा थी, जहा उस समय नैतिक शिक्षा के अध्यापक श्री प्रेमचन्द्र मिश्रा जी बच्चो को कहानिया सुना रहे थे, सभी बच्चे दोहरा रहे थे , बस फिर क्या था शरीर इस कक्षा मे और मन उस कक्षा मे रमा था| मन ही मन निश्चय किया कि कल से कक्षा बदली | मेरे पास कुछ कांपिया थी और उनका साथ देने वाला एक छोटा सा पेन| मैंने उन सब को अपनी कमीज के अंदर रखा जिसमे एक दोस्त नरेंद्र कुमार ने साथ दिया था, या यू कहे कि कापियो को छुपाने का विचार उसी का था क्योकि मैंने ही उससे कहा कि हमे घर जाना है| उस विद्यालय के पहले ही दिन भोजनबेला से भाग आया, फिर वापस नहीं गया|
दूसरे दिन इस शर्त से निकला कि विद्यालय मे बात करके आओ कि मुझे कोई मारेगा तो नहीं | शर्त के मुताबिक मुझे बताया गया कि पापा ने विद्यालय मे बात कर ली है मुझे कोई मारेगा नहीं | तब जाकर मैंने राहत की सांस ली लेकिन भय फिर भी बना रहा | लेकिन जाना तो था पढ़ने, जैसे-तैसे हिम्मत करके निकल पड़ा | चुप-चाप दबे मन से घर से निकला, विद्यालय पहुचकर कक्षा मे जाकर ऐसे बैठा जैसे किसी ने हमे देखा न हो | क्योकि एक डर यह भी था कि कल खाना खाने के बहाने भाग आया था, फिर वापस नहीं गया था |

मेरी कहानी का एक छोटा सा हिस्सा कैसा लगा comment box मे जरूर बताये आगे लिखू या नहीं आप बताये .......

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